Saturday 28 July 2012

मजबूर गुनेहगार





मगरूर थी या मजबूर वो ,कौन पूछने जायेगा उससे 
सब बन बैठे हैं मालिक उसके,वो बस एक कांच की गुडिया हैं,

 समझा  नहीं  कभी  इंसान  उसे ,
खेलते रहे उससे जैसे ,बस  वो मनोरंजन का एक जरिया है

होती रूह आहत उसकी ,हर रात लुटती आबरू के साथ 
पड़ जाती अनगिनत सिलवटे दिल पर भी,उस सिकुड़ते  चादर के साथ  

लहू के अश्क पीकर ,युहीं घुट घुट कर जीती है 
लिए झूठी मुस्कान लबो पर,तनहाइयों के अंधेरों में जख्मो को सींती  है ,


तरसती है, दो सच्चे प्यार के बोल सुनने को...
हर रात व्यवसाय के तराजू में तुलती है 

चुनती  है रोज़ उन मसले हुए ख्वाबो को, बिखरे  कांच के टुकडो में से ,
जो बिखर जाते हैं  बिस्तर पर टूट कर  चूड़ियों के टुकडो के साथ ,


बस पड़ी रहती है जडवत सी,पत्थर बनकर,
किसी की हवस  मिटाते बेजान से  एक जिस्म की तरेह

फिर अपने तार- तार हुए दामान को समेटकर  आहत ह्रदय से हर बार  
 हो जाती तैयार ,लिए झूठी मुस्कान `बिखरने को फिर एक बार 

बिखरते -समेटते इन लम्हों में  ही उम्र सारी बंध जाती है 
बेमन से किये समर्पण से ,हर रात बे-इन्तेहाँ दर्द पाती है 

हार कर अपनी नियति से,हालात से समझोता कर जाती  है 
बेगैरत सी ज़िन्दगी में ,बस जीने की रस्म निभाती है 


टूटी है जो पहले से ही ,दुनिया उसे ओर रुलाती है,
बींध कर शब्द-वाणो से ,रूह उसकी छलनी  कर जाती है  

बने रहते हैं  शरीफ ,हमेशा ही  सत्चरित्र 
जो आकर इन बदनाम गलियों में भी, होते नही बदनाम


और वो मजबूर  यहाँ  त्रियाचरित्र कहलाती है 
सभ्य समाज के लिए बदनुमा दाग बन जाती है

बस पूछती है सवाल दुनिया उससे ,और उसके गुनाहों का हिसाब दिखाती है 
कोई नहीं पूछता  उससे की कैसे घायल ह्रदय में, ये जख्म गहरे  छुपाती है


 बेगुनाह होकर भी, वो क्यूँ गुनाहों का बोझ उठाती है 
आखिर  क्यों कोई नहीं  जानना चाहता की कैसे एक मासूम ,तवायफ पेशावर बन जाती है....  

 ........सोमाली